" हमने सोचा था कि बुनियाद को सींचेंगे लहू से, पर यहाँ तो दीवारों में दरारें नज़र आती हैं।
संविधान की क़सम खाई थी जिन हाथों ने, आज उन्हीं हाथों में तिजारत नज़र आती है। "
हाल ही में, एक प्रमुख विपक्षी नेता (राहुल गांधी) को अपनी पार्टी की तीसरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में चुनावी प्रक्रिया की अखंडता पर मुखरता से सवाल उठाते हुए देखा गया। इस घटना ने देश में एक गंभीर बहस छेड़ दी है: क्या हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में पारदर्शिता की कमी है? और क्या निर्वाचन आयोग (Election Commission) अपनी संवैधानिक भूमिका को पूरी तरह से निभा रहा है?
विपक्षी नेता द्वारा उठाए गए सवाल सिर्फ एक पार्टी तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ये लोकतंत्र की नींव से जुड़े हुए हैं। सवाल यह है कि यदि चुनाव प्रक्रिया ही संदेहास्पद हो जाए, तो चुनाव कराने का उद्देश्य क्या रह जाता है?
निर्वाचन आयोग की भूमिका पर संदेह
प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्य चिंता निर्वाचन आयोग की जवाबदेही और पारदर्शिता को लेकर थी। विपक्ष ने सीधे तौर पर यह प्रश्न किया कि जब नागरिकों को यह यकीन होने लगे कि उनके साथ 'धोखा' हो रहा है और उन्हें 'गुमराह' किया जा रहा है, तो चुनाव आयोग की प्रासंगिकता क्या है? चुनाव आयोग, एक संवैधानिक संस्था के रूप में, नागरिकों के विश्वास पर टिका होता है।
एक लोकतंत्र में, चुनाव आयोग का प्राथमिक दायित्व सभी सवालों का तथ्यात्मक और स्पष्ट जवाब देना है ताकि जनता का विश्वास बना रहे। विपक्ष का यह तर्क महत्वपूर्ण है कि अगर आयोग तथ्यों के साथ जवाब देने में विफल रहता है और जनता का विश्वास खो देता है, तो चुनाव प्रक्रिया पर खर्च किया जाने वाला भारी सार्वजनिक धन और ऊर्जा व्यर्थ है।
गोपनीयता बनाम जवाबदेही: 'H-Files' के चौंकाने वाले दावे
विपक्ष ने निर्वाचन आयोग के एक पूर्व बयान का हवाला दिया, जिसमें आयोग ने कुछ डेटा या प्रक्रियाएँ साझा करने से इनकार करते हुए 'गोपनीयता' का तर्क दिया था। विपक्ष का आरोप है कि आयोग का यह व्यवहार एक जिम्मेदार और जवाबदेह प्राधिकरण के बजाय, किसी एक पार्टी के प्रतिनिधि जैसा प्रतीत होता है।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में विपक्षी नेता ने 'H-Files' नामक एक विस्तृत दस्तावेज़ प्रस्तुत किया, जिसमें दावा किया गया है कि हरियाणा विधानसभा चुनावों में एक पूरे राज्य का जनादेश चुरा लिया गया था। उन्होंने आरोप लगाया कि आयोग के पास डुप्लीकेट वोटरों की पहचान करने के लिए सॉफ्टवेयर है, लेकिन उसका उपयोग जानबूझकर नहीं किया गया—यह एक स्पष्ट संकेत है कि आयोग सत्ताधारी दल की 'मदद' कर रहा है।
एक दिलचस्प तथ्य यह भी सामने आया कि प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मुख्यमंत्री का एक वीडियो चलाया गया, जिसमें वे कथित तौर पर कह रहे थे कि "हमारे पास सारी व्यवस्थाएं हैं, आप चिंता मत करिए," जिससे यह संदेह और गहरा हो गया कि चुनावी परिणामों की पूर्व जानकारी थी।
जब देश के सबसे बड़े विपक्षी नेता को फर्जी वोटिंग और चुनावी धांधली को लेकर अकेले चिंता व्यक्त करते हुए देखा जाता है, और निर्वाचन आयोग की ओर से कोई ठोस या आश्वस्त करने वाला जवाब नहीं आता, तो यह संदेश जाता है कि शायद आयोग को इस मुद्दे से कोई सरोकार नहीं है।
लोकतंत्र की आत्मा और संविधान का आह्वान
भारत का संविधान, अनुच्छेद 324 के तहत, निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की सर्वोच्च जिम्मेदारी सौंपता है। यह अनुच्छेद चुनाव आयोग को एक संप्रभु शक्ति बनाता है, जिसका उद्देश्य किसी भी राजनीतिक दबाव से परे रहकर "इलेक्शन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण" करना है।
जब विपक्ष यह आरोप लगाता है कि एक पार्टी का नेता आयोग के पक्ष में जवाब दे रहा है, तो यह सीधा हमला संविधान की मूल भावना पर होता है। यह सिर्फ एक राजनीतिक विवाद नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की नींव पर एक प्रश्नचिह्न है। संविधान विश्वास की मांग करता है, और अगर यह विश्वास ही टूट जाए, तो लोकतंत्र का ढाँचा कमज़ोर पड़ जाता है।
पारदर्शिता और कार्रवाई की मांग: 25 लाख फर्जी वोटों का आरोप
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में फर्जी वोटिंग से संबंधित चौंकाने वाले आंकड़े सामने रखे गए। विपक्ष ने दावा किया कि हरियाणा में लगभग 25 लाख वोटों की हेराफेरी पांच मुख्य श्रेणियों में की गई थी, जिनमें डुप्लीकेट वोटर (5.21 लाख), अवैध पते वाले वोटर, और बल्क वोटर (19 लाख) शामिल थे, जिसका अर्थ है कि हर आठ में से लगभग एक वोटर नकली (12.5%) था।
सबसे हैरान करने वाले आरोपों में एक यह था कि एक महिला, जिसकी पहचान एक ब्राजीलियन मॉडल के रूप में की गई, का नाम 22 अलग-अलग वोटर कार्डों पर, 10 बूथों पर दर्ज था, और उसने कई बार वोट डाला। इसके अलावा, विपक्षी नेता ने पहली बार पोस्टल बैलेट और वास्तविक वोटों के रुझानों में बड़ा अंतर होने का भी दावा किया, जिसे सेंट्रलाइज़्ड (Centralized) वोट चोरी मॉडल का प्रमाण बताया गया।
एक बड़ा संदेह यह भी उभर रहा है कि क्या यह सब 'फर्जी वोट' के मुद्दे को छिपाने के लिए तो नहीं हो रहा है, ताकि हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में जो कुछ हुआ, उसका किसी को पता न चले। अब इस संदेह को दूर करने का एकमात्र तरीका तत्काल और व्यापक पारदर्शिता है।
यह सवाल सिर्फ संख्याओं का नहीं, बल्कि उस भरोसे का है जो देश के करोड़ों लोगों ने अपनी चुनावी प्रक्रिया पर किया है|


